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हिन्दू-धर्म – हिन्दू-धर्म क्या है, जिसका प्रचार-प्रसार किया जाय? क्या हिन्दू-धर्म किसी जीवन-शैली का नाम है? यहाँ धर्म के नाम पर जो कुछ भी प्रचलन में है, जीवन-शैली ही तो है। चार वर्णों में बँटा समाज, कौन मन्दिर जाय कौन न जाय? कौन अच्छा खाये कौन नहीं? कौन अच्छे वस्त्र पहने? जीवन-पद्धति देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप बदलती ही रहती है, जबकि धर्म अपरिवर्तनशील होता है। एक ओर जीवन-यापन की सांसारिक व्यवस्था और दूसरी ओर परमात्मा में प्रवेश, स्थिति! दोनों की क्या तुलना हो सकती है? इसके लिए धर्म को मूल रूप में जानना, उद्गम से ही उसका साफ-सुथरा परिचय देना होगा। धर्म आपको मन, कर्म, वचन से एक परमात्मा के प्रति समर्पण दिलाता है। भली प्रकार समर्पण सधते ही वह परमात्मा आपके अन्तःकरण से जागृत होकर उठाने-बैठाने, मार्गदर्शन करने लगते हैं, सद्गुरु का परिचय देते हैं। सद्गुरु के उपलब्ध होते ही मार्ग प्रशस्त होने लगता है, अन्तःप्रेरणा होने लगती है अन्यथा विश्व भर की जानकारियों का संग्रह करके भी कोई भाषा और बुद्धि-कौशल से धार्मिक निर्णय नहीं दे सकता। महापुरुषों के अभाव में समाज में भगवान् के प्रति श्रद्धा घट जाया करती है। बौद्धिक निर्णयों की देन है कि व्यवस्था, रीति-रिवाज ही धर्म का स्थान ले लेते हैं। सद्गुरुओं के अभाव में समाज नास्तिक हो जाता है। मनुष्य श्रद्धा का पुतला है। विकल होकर यह भगवान् को ढूँढ़ता है। व्यवस्थाकार इन्हें कुछ-न-कुछ पकड़ाते चले जाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के समय में भी भारत अनेकानेक कुरीतियों में उलझा था, भगवान् ने उन कुरीतियों का निवारण किया।
Dated: 04-01-2017
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